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ई॒शा वा॒स्य᳖मि॒दंꣳ सर्वं॒ यत्किञ्च॒ जग॑त्यां॒ जग॑त्। तेन॑ त्य॒क्तेन॑ भुञ्जीथा॒ मा गृ॑धः॒ कस्य॑ स्वि॒द्धन॑म् ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ई॒शा। वा॒स्य᳖म्। इ॒दम्। स॒र्व॑म्। यत्। किम्। च॒। जग॑त्याम्। जग॑त् ॥ तेन॑। त्य॒क्तेन॑। भु॒ञ्जी॒थाः॒। मा। गृ॒धः॒। कस्य॑। स्वि॒त्। धन॑म् ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चालीसवें अध्याय का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य ईश्वर को जानके क्या करें, इस विषय को कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! तू (यत्) जो (इदम्) प्रकृति से लेकर पृथिवीपर्य्यन्त (सर्वम्) सब (जगत्याम्) प्राप्त होने योग्य सृष्टि में (जगत्) चरप्राणीमात्र (ईशा) संपूर्ण ऐश्वर्य से युक्त सर्वशक्तिमान् परमात्मा से (वास्यम्) आच्छादन करने योग्य अर्थात् सब ओर से व्याप्त होने योग्य है (तेन) उस (त्यक्तेन) त्याग किये हुए जगत् से (भुञ्जीथाः) पदार्थों के भोगने का अनुभव कर (किंच) किन्तु (कस्य, स्वित्) किसी के भी (धनम्) वस्तुमात्र की (मा) मत (गृधः) अभिलाषा कर ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ईश्वर से डरते हैं कि यह हमको सदा सब ओर से देखता है, यह जगत् ईश्वर से व्याप्त और सर्वत्र ईश्वर विद्यमान है। इस प्रकार व्यापक अन्तर्यामी परमात्मा का निश्चय करके भी अन्याय के आचरण से किसी का कुछ भी द्रव्य ग्रहण नहीं किया चाहते, वे धर्मात्मा होकर इस लोक के सुख और परलोक में मुक्तिरूप सुख को प्राप्त करके सदा आनन्द में रहें ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्याः परमात्मानं विज्ञाय किङ्कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(ईशा) ईश्वरेण सकलैश्वर्य्यसम्पन्नेन सर्वशक्तिमता परमात्मना (वास्यम्) आच्छादयितुं योग्यं सर्वतोऽभिव्याप्यम् (इदम्) प्रकृत्यादिपृथिव्यन्तम् (सर्वम्) अखिलम् (यत्) (किम्) (च) (जगत्याम्) गम्यमानायां सृष्टौ (जगत्) यद्गच्छति तत् (तेन) (त्यक्तेन) वर्जितेन तच्चित्तरहितेन (भुञ्जीथाः) भोगमनुभवेः (मा) निषेधे (गृधः) अभिकाङ्क्षीः (कस्य) (स्वित्) कस्यापि स्विदिति प्रश्ने वा (धनम्) वस्तुमात्रम् ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! त्वं यदिदं सर्वं जगत्यां जगदीशा वास्यमस्ति, तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः, किञ्च कस्य स्विद्धनं मा गृधः ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या ईश्वराद् बिभ्यत्ययमस्मान् सर्वदा सर्वतः पश्यति, जगदिदमीश्वरेण व्याप्तं सर्वत्रेश्वरोऽस्तीति व्यापकमन्तर्यामिणं निश्चित्य कदाचिदप्यन्यायाचरणेन कस्यापि किञ्चिदपि द्रव्यं ग्रहीतुं नेच्छेयुस्ते धार्मिका भूत्वाऽत्र परत्राभ्युदयनिःश्रेयसे फले प्राप्य सदाऽऽनन्देयुः ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वर आपल्याला सगळीकडून पाहतो तो या जगात सर्वत्र व्याप्त आहे. विद्यमान आहे. अशा व्यापक अंतर्यामी परमेश्वराचा निश्चय करून जी माणसे अन्यायपूर्वक वागून कुणाचे द्रव्य घेऊ इच्छित नाहीत त्या धर्मात्म्यांनी इहलोक व परलोक मुक्तिरूपी सुख प्राप्त करून आनंदाने राहावे.